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कविता

पुल से लिपट कर रोती नदी

रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति


पुल बना और गाँव सुंदर हुआ
नदी सूखी तो गाँव ने इधर उधर देखा
यह अचानक सब नहीं हुआ था लेकिन
उत्तर किसी के पास नहीं था

मेरे गाँव के लोगों के लिए
कुछ मील दूर सुनाई पड़ता था किसी काम का शोर
वहाँ बजते रहते थे विशाल इंजिनों के सिलेंडर
धुआँ और मजदूरों की लंबी साँसें जिंदा दिन रात
मिट्टी को अलटती मशीनों की लंबी भुजाएँ

रात को भी नहीं रुकती थी आवाज की बाढ़
काम लगातार होता था गाँव को पता नहीं था
पुल नदी के लिए बनाया था या सूखने के लिए

वे आवाजें एक दिन पूरी तरह शांत हो गईं
मशीनें खराब पुरजे छोड़ कर न जाने कहाँ चली गईं
आसमान से देवता देखते थे यह सब
गाँव सोचता था किसी देवता की करामात है यह
जैसे ही काम रुका नदी ने सूखना शुरू कर दिया

पुल एक सूखी नदी पर एक स्मारक था अब
जिस पर वक्त ट्रकों की तरह गुजरने लगा था

नदी बीमार गाय की तरह गाँव में आती है
जब भी पुल के नीचे से गुजरती है
शाम की रोशनी में पुल से लिपट कर रोती है


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